कर्जमाफी से नहीं बनेगी बात

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के आंकड़ों के अनुसार, मोदी सरकार के पिछले चार सालों में औसत कृषि विकास दर केवल .5 प्रतिशत रही, जबकि इस दौरान देश की जीडीपी औसतन 7.2 फीसदी की दर से बढ़ी। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के सरकारी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि विकास दर लगभग 12 प्रतिशत प्रति वर्ष होनी चाहिए, जो असंभव है। आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 कहा गया कि पिछले चार सालों में वास्तविक कृषि जीडीपी और आय में कोई वद्धि नहीं हई है। पिछले ढाई सालों में खाद्य पदाथों की उपभोक्ता महंगाई दर सीपीआई) सामान्य उपभोक्ता महंगाई दर से नीचे बनी हई हैनवंबर में तो यह -2.61 प्रतिशत रही जो सीपीआई से 5 प्रतिशत अंक नीचे थी। इससे पता चलता है कि किसानों को अपनी फसलों का मल्य पहले से भी कम मिल रहा है, जबकि उनके उपयोग की वस्तुएं उन्हें महंगी मिल रही हैं।ऑर्गनाईजेशन फॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन एंड डिवेलपमेंट ओईसीडी) के एक अध्ययन के अनुसार, सन 2000 से 2017 के बीच किसानों की आमदनी 2017-18 के मल्यों पर लगभग 45 लाख करोड़ रुपए घटी है। यह सरकारों द्वारा किसानों पर थोपा गया एक किस्म का 2.65 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष का 'अदृश्य टैक्स' है। एक तरफ महंगाई दर काबू में रखने के उद्देश्य से सरकारें किसानों को उनकी फसल का उचित और लाभकारी मूल्य दिलाने से बचती रही हैं, दूसरी तरफ फसलों की लागत लगातार बढ़ती चली गई। परिणामस्वरूप खेती घाटे का सौदा बन गई और किसान कर्ज के जाल में फंसता चला गया। मोदी सरकार ने किसानों को कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) द्वारा निर्धारित संपूर्ण लागत-सी2% का डेढ़ गुना मूल्य देने का वादा किया था पर इसे आज तक पूरा नहीं किया गया। संकट से तत्काल राहत दिलाने के लिए पिछले दो सालों में विभिन्न राज्यों ने कुल मिलाकर लगभग 1.80 लाख करोड़ रुपये की कर्ज माफी की घोषणाएं की हैं। लेकिन इनमें से अभी आधी पर भी अमल नहीं हो सका है। लेकिन अर्थशास्त्री राजकोषीय घाटे का हवाला देकर इस पर भी उंगली उठा रहे हैं ।रिजर्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार बैंकों द्वारा यूपीए के दस सालों में लगभग 2.10 लाख करोड़ रुपये और वर्तमान सरकार के चार सालों में लगभग .60 लाख करोड़ रुपये का ऋा बट्टा खाते में डाल दिया गया, जिसका लाभ मुख्यतः धन्ना सेठों और उद्योगपतियों ने ही उठाया। राज्यों और केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सब्सिडी देश की जीडीपी की लगभग 6 प्रतिशत यानी करीब 10 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष बैठती , जिसका लाभ मुख्यतः संपन्न तबका उठाता है। इसके अलावा केंद्रीय बजट में सरकार द्वारा विभिन्न उद्योगों आदि को दी जाने वाली सब्सिडी और बाकी रियायतें भी देश की जीडीपी की लगभग 6 प्रतिशत यानी करीब 10 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष हैं, जिसे 'रेवेन्यू फोरगॉन' नाम से बजट में दर्ज किया जाता है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के चलते केंद्र और राज्य सरकारों पर लाख करोड़ से भी ज्यादा का वार्षिक बोझ पड़ने का अनुमान है। इन सब रियायतों पर|अर्थशास्त्री मौन धारण कर लेते हैं।किसान 2019के आम चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बन गयाहैमोदी सरकार कृषि संकट को देखते हुए। चुनावों से पहले किसानों के गुस्से को शांत करने का कुछ ठोस उपाय ढूंढ रही है जिसे तुरंत लागू किया जा सके। इसके लिए नीति आयोग। ने किसानों के खाते में प्रत्येक फसल सीजन में|सीधे पैसा भेजने की डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) योजना की सिफारिश की है। तेलंगाना में किसानों के खाते में रकबे के हिसाब से 4000 रुपये प्रति एकड़ प्रति सीजन की सीधी। मदद दी जा रही है। नाकाफी होने के बावजूद। यह सराहनीय योजना है। किसानों की हालत देखते हए उन्हें तेलंगाना मॉडल की तर्ज पर। प्रत्येक फसल सीजन में प्रति एकड़ 8,000 रुपये। की सीधी सब्सिडी देनी चाहिए, जिसमें हर साल महंगाई दर के हिसाब से वृद्धि की जाए। देश में लगभग 50 करोड़ एकड़ सकल। फसली क्षेत्र हैइस योजना को पूरे देश में लागू किया जाए तो इस पर लगभग 4 लाख करोड़ रुपये प्रति वर्ष का खर्च आने का अनुमान है,। जो उपरोक्त विभिन्न मदों के बजटीय खर्चों के। मुकाबले बेहद कम है। कर्ज माफी किसानों। की मूल चाहत नहीं हैइससे सभी किसान। लाभान्वित नहीं होते हैं क्योंकि सारा कर्ज। संस्थागत स्रोतों से नहीं लिया जाता। राष्टीय सैंपलसर्वे संगठन (एनएसएसओ) के आंकड़ों के। अनुसार कृषक परिवारों पर दो-तिहाई कर्जा|संस्थागत स्रोतों और एक-तिहाई अन्य स्रोतोंका होता है। सभी किसानों को यदि जमीन केरकबे के आधार पर फसल की बुवाई के वक्त। एक निश्चित राशि मिल जाए तो कृषि संकट के। हल की दिशा में यह एक बड़ा कदम होगा। यह। योजना विश्व व्यापार संगठन के अनुकूल भी है।। सब्सिडी के आधार पर फसलें बोने से तो बाजारमें कई विकार पैदा होते हैं